Monday, November 28, 2011

भारत की ताक़त , प्यार ही प्यार बरसा हरिद्वार में

पंडित श्री राम शर्मा आचार्य जी की संस्था गायत्री परिवार की तरफ़ से हमें निमंत्रण मिला।
उनके जन्मशताब्दी समारोह में पहुंचे। उनकी कलश यात्रा में भी शामिल हुए।
हमारे अलावा दूसरे ज़िलों से भी मुसलमान यहां पहुंचे थे। सबसे मिलकर बहुत अच्छा लगा।
हिंदू मुस्लिम क़रीब आए इस महाकुंभ में।
प्यार मुहब्बत की अनोखी मिसाल देखी सभी ने और भारत की ताक़त यही है।
आप इसे यूट्यूब पर देख भी सकते हैं

Friday, November 25, 2011

गर्भाशय कैंसर से बचाते हैं बच्चे !


ऐसी महिलाओं में गर्भाशय कैंसर के मामले बढ़ते जा रहे हैं जिनके या तो कम बच्चे हैं या फिर बच्चे हैं ही नहीं। वर्तमान में प्रतिवर्ष 7,530 महिलाओं में गर्भाशय कैंसर की पुष्टि होती है जबकि 1975 में यह संख्या 4,175 थी।

समाचार पत्र 'डेली मेल' के मुताबिक चिकित्सकों का कहना है कि महिलाओं का अपने करियर में आगे बढ़ने की वजह से बच्चों को जन्म नहीं देना या कम बच्चों पैदा करना गर्भाशय कैंसर के मामले बढ़ने का मुख्य कारण है।

Monday, November 21, 2011

Tuesday, November 15, 2011

पहले से ज्यादा मांस खा रहे हैं भारतीय


 

बदलते वक्त के साथ भारत में खाने में मांस का इस्तेमाल भी बढ़ा है. पहले जहां लोग भैंस या गाय का मांस नहीं खाते थे वहीं अब शौक के लिए भी लोग खा रहे हैं. बड़े रेस्तरां में सूअर और गोमांस मिलने लगा है.

 
धार्मिक मनाही और शाकाहारी संस्कृति के बावजूद भारतीय पहले से अधिक मांस का इस्तेमाल करने लगे हैं. आहार के बदलाव और हाइजीन प्रक्रिया उन्नत होने से ऐसे बदलाव हो रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र की खाद्य और कृषि संगठन यानि एफएओ कहती है कि भारत में मांस की प्रति व्यक्ति खपत 5 से लेकर 5.5 किलोग्राम सालाना हो गई है.
रिकॉर्ड संकलन शुरू होने के बाद से यह सबसे उच्चतम है. इससे पता चलता है कि विकासशील देशों में प्रोटीन युक्त आहार की तरफ लोगों का झुकाव हो रहा है.जानकार कहते हैं कि आर्थिक विकास की वजह से तेजी से अमीर हो रहे लोग, देश विदेश यात्रा कर चुके लोगों के कारण से मांस के इस्तेमाल में तेजी आ रही है. मांस के ज्यादा उपयोग होने से रेस्तरां और सुपरमार्केट के पास उपभोक्ताओं को देने के लिए विभिन्न प्रकार के उत्पाद हैं. 
वक्त के साथ स्वाद बदला
मुंबई के एक मशहूर विदेशी व्यंजन रेस्तरां के जयदीप मुखर्जी कहते हैं, "संकोच को हटाकर भारतीय अब ज्यादा साहसिक हो रहे हैं. भैंसों और सूअर के मांस का टिक्का लोग पसंद कर रहे हैं." अब यह रेस्तरां ऐसे सप्लायर की तलाश में हैं जो इसके फिनिक्स मिल शॉपिंग मॉल में स्थित रेस्तरां के लिए तीतर, बटेर और बतख का मांस दे सके.
फूड चेन नेचर्स बास्केट के मैनेजिंग डायरेक्टर मोहित खट्टर कहते हैं, "जहां पहले मांस के उपयोग के लिए माता पिता की मंजूरी चाहिए होती थी, अब पश्चिमी देशों का प्रभाव और उदार दृष्टिकोण की वजह से लोग मांस खाने लगे हैं." खट्टर के मुताबिक मांसाहारी होना अब भोग विलास नहीं रहा. घरेलू मांस उत्पादन में सुधार हुआ है और अब हाइजीन प्रक्रिया होने की वजह से ग्राहकों का विश्वास भी बढ़ा है. एफएओ के मुताबिक भारत में सालाना 1.06 करोड़ टन मांस और मछली का उत्पादन होता है, लेकिन  देश में अभी भी शाकाहारी लोगों की संख्या कहीं अधिक है.
गाय और सुअर के मांस का चलन बढ़ा   
देश में कितने शाकाहारी हैं इसका कोई सरकारी आंकड़ा नहीं है. लेकिन 2006 में द हिंदू अखबार ने देशभर में एक सर्वे कराया. सर्वे से पता चला कि देश की 40 फीसदी आबादी डेयरी उत्पादों और अंडों का इस्तेमाल करती हैं लेकिन मांस का इस्तेमाल नहीं करती. भारत में हिंदू धर्म में गाय की पूजा होती है. इस वजह से भारत के कई राज्यों में गाय के वध पर पाबंदी है. फास्ट फूड विक्रेता मैकडोनाल्ड भारत में बीफ बर्गर नहीं बेचता है.
यहां तक की हाउसिंग सोसाइटी उन लोगों को मकान किराये पर या नहीं बेचती हैं जो मांसाहारी होते हैं. अमेरिका स्थित खाद्य और कृषि नीति अनुसंधान संस्थान के मुताबिक भारत में दस पहले जहां ब्रॉयलर चिकन की प्रति व्यक्ति खपत करीब 1 किलोग्राम थी वही अब बढ़कर 2.26 किलोग्राम हो गई है. मांस का बड़े पैमाने में मिलना अजय मुखोपाध्याय जैसे लोगों के लिए वारदान साबित हो रहा है. 39 वर्षीय मुखोपाध्याय को बीफ करी बेहद पसंद है.
मुखोपाध्याय  कहते हैं, "मुझे भुना हुआ गोमांस पसंद है. वह रसदार और लजीज होता है." एशिया के मुकाबले भारत में प्रति व्यक्ति मांस की खपत औसतन कम है. एशिया में औसतन 27 किलोग्राम प्रति व्यक्ति खपत होती है. एफएओ के मुताबिक बाकी दुनिया में हर साल 38 किलोग्राम प्रति व्यक्ति खपत होती है.
रिपोर्ट:एएफपी/आमिर अंसारी
संपादन:एस गौड़
बशुक्रिया -  http://www.dw-world.de/dw/article/0,,15238044,00.html

Thursday, November 10, 2011

क्या आप मूत्र पीने के शौक़ीन हैं ?


मल मूत्र का नाम आते ही आदमी घृणा से नाक भौं सिकोड़ने लगता है लेकिन ऐसे लोगों की संख्या करोड़ों में है जो कि मूत्र पीते हैं।
मूत्र पीने को आजकल बाक़ायदा एक थेरेपी के रूप में भी प्रचारित किया जाता है।
मूत्र का सेवन करने वालों में आज केवल अनपढ़ और अंधविश्वासी जनता ही नहीं है बल्कि बहुत से उच्च शिक्षित लोग भी हैं और ऐसे लोग भी हैं जो कि दूसरे समुदाय के लोगों को आए दिन यह समझाते रहते हैं कि उन्हें क्या खाना चाहिए और क्या नहीं खाना चाहिए लेकिन खुद कभी अपने पीने पर ध्यान नहीं देते कि वे क्या पी रहे हैं और क्यों पी रहे हैं ?
बहरहाल यह दुनिया है और यहां रंग बिरंगे लोग हैं।
सबकी अक्ल और सबकी पसंद अलग अलग है।
जो लोग पेशाब पीते हैं , उन्हें भला कौन रोक सकता है ?
देखिए एक लिंक -


(Coen Van Der Kroon) 
Urine therapy consists of two parts: internal appication (drinking urine) and external application (massaging with urine). Both aspects comple-ment each other and are important for optimal results. The basic principle of urine therapy is therefore quite simple: you drink and massage yourself with urine. Even so, there are a number of different ways to apply urine therapy. After your initial experiences, you will be able to determine. Throughout the civilized world, blood and blood products are used in the medical world without evoking the repugnance associated with urine. We often use prepacked cells, plasma, white blood cells and countless other blood components. Urine is nothing other than a blood product. 

Wednesday, November 9, 2011

मैदानी क्षेत्रों में मांस क्यों खाया जाए ?


हिंदू भाई बहनों में कुछ जो शाकाहारी हैं, वे ये सवाल अक्सर पूछते हैं। उनके सवालों का जवाब देती है यह पोस्ट

बौद्धिक बौनेपन का ख़तरा 


इसे पढ़कर आपकी  तसल्ली ज़रूर हो जाएगी।

Tuesday, November 8, 2011

विज्ञान के युग क़ुरबानी पर ऐतराज़ क्यों ?

ZEAL: ईद मुबारक
विज्ञान के युग क़ुरबानी पर ऐतराज़ क्यों ?
ब्लॉगर्स मीट वीकली 16 में यह शीर्षक देखकर लिंक पर गया तो उन सारे सवालों के जवाब मिल गए जो कि क़ुरबानी और मांसाहार पर अक्सर हिंदू भाई बहनों की तरफ़ से उठाए जाते हैं।
पता यह चला कि अज्ञानतावश कुछ लोगों ने यह समझ रखा है कि फल, सब्ज़ी खाना जीव को मारना नहीं है। जबकि ये सभी जीवित होते हैं और इनकी फ़सल को पैदा करने के लिए जो हल खेत में चलाया जाता है उससे भी चूहे, केंचुए और बहुत से जीव मारे जाते हैं और बहुत से कीटनाशक भी फ़सल की रक्षा के लिए छिड़के जाते हैं।
ये लोग दूध, दही और शहद भी बेहिचक खाते हैं और मक्खी मच्छर भी मारते रहते हैं और ये सब कुकर्म करने के बाद भी दयालुपने का ढोंग रचाए घूमते रहते हैं।
यह बात समझ में नहीं आती कि जब ये पाखंडी लोग ये नहीं चाहते कि कोई इनके धर्म की आलोचना करे तो फिर ये हर साल क़ुरबानी पर फ़िज़ूल के ऐतराज़ क्यों जताते रहते हैं ?
अपने दिल में ये लोग जानते हैं कि हमारी इस बकवास से खुद हमारे ही धर्म के सभी लोग सहमत नहीं हैं। इसीलिए ये लोग कमेंट का ऑप्शन भी बंद कर देते हैं ताकि कोई इनकी ग़लत बात को ग़लत भी न कह सके।
सचमुच यह लेख बहुत अच्छा है,